क्या धामी अपने किले को सुरक्षित रख पाने में होंगे कामयाब ?

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देहरादून। उत्तराखंड में अगले साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। इस वक्त भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व वाली सरकार है। जिसे पुष्कर सिंह धामी चला रहे हैं। हालांकि इससे पहले तीरथ सिंह रावत और त्रिवेंद्र सिंह रावत के पास इसकी जिम्मेदारी थी, लेकिन पार्टी ने इन्हें हटाकर युवा नेतृत्व को प्रदेश की कमान सौंप दी। ऐसे में क्या भाजपा फिर से सत्ता में काबिज हो पाएगी या फिर अंतर्कलह से जूझ रही कांग्रेस प्रदेश के मतदाताओं को लुभाने में कामयाब होगी। उत्तर प्रदेश से अलग होकर साल 2000 में उत्तराखंड की स्थापना हुई थी और यहां पर कांग्रेस के एकमात्र मुख्यमंत्री को छोड़ दिया जाए तो किसी भी पार्टी के मुख्यमंत्री ने अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया है। आंतरिक संघर्ष और मौसमी कहर से जूझता हुआ उत्तराखंड राष्ट्रीय राजनीति में अहम किरदार निभाता है। इसी बीच हम प्रदेश के प्रमुख राजनीतिक दलों के विषय पर चर्चा करेंगे।

उत्तराखंड में भाजपा का उदय हिंदुत्व के साथ हुआ। पहले अटल बिहारी वाजपेयी और फिर नरेंद्र मोदी की लहर के जरिए पार्टी ने यहां पर अपनी जड़ों को मजबूत किया। साल 2002 से लेकर 2017 तक के चुनावों में लगातार तेजी से पार्टी ने खुद की साख को मजबूत किया। 2002 के चुनाव में भाजपा को 70 में से 19 सीटों से ही संतोष करना पड़ा लेकिन सत्ता की कुर्सी पर पहुंचने के लिए उनका संघर्ष लगातार 5 सालों तक जारी रहा और अगले विधानसभा चुनाव में यानी की साल 2007 में भाजपा सरकार बना पाने में सफल हुई। लेकिन इसके लिए भाजपा को जोड़तोड़ की राजनीति करनी पड़ी थी।

साल 2007 में 70 में से 69 सीटों पर चुनाव हुआ था। ऐसे में भाजपा को सरकार बनाने के लिए 35 का आंकड़ा चाहिए था। ऐसे में पार्टी ने उत्तराखंड क्रांति दल और निर्दलीय विधायकों की मदद से सरकार बनाई थी। इसके बाद साल 2012 के चुनाव में न कांग्रेस को बहुमत मिला और न ही भाजपा को लेकर कांग्रेस ने निर्दलियों की मदद से सरकार बना ली थी और फिर सरकार विरोधी लहर और देश में चल रही मोदी लहर के दौरान भाजपा को उसकी खोई हुई इज्जत वापस मिल गई। साल 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने उत्तराखंड के इतिहास में सबसे बड़ी जीत दर्ज की। इस दौरान पार्टी को 70 में से 56 सीटों पर जीत मिली थी। भाजपा ने यह चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर लड़ा था और फिर त्रिवेंद्र सिंह रावत की ताजपोशी की थी। हालांकि इस कार्यकाल में भाजपा को दो बार अपना मुख्यमंत्री बदलना पड़ा और प्रदेश इकाई अंतर्कलह से भी जूझने लगी। जहां एक तरफ दूसरे दलों से आए नेता भविष्य को लेकर चिंतित हैं तो दूसरी तरफ पुराने कद्दावर नेता अपनी साख को लेकर परेशान हैं।

उत्तराखंड की स्थापना होने के बाद प्रदेश को पहली सरकार कांग्रेस ने दी। इस दौरान नारायण दत्त तिवारी को मुखिया चुना गया था और उत्तराखंड के इतिहास में वही एकमात्र मुख्यमंत्री हैं, जिन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया है। इसके बाद सत्ता-विरोधी लहर के चलते कांग्रेस 2007 का विधानसभा चुनाव हार गई। हालांकि 2012 में पार्टी की फिर वापसी हुई और विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाया गया लेकिन पार्टी ने 2 साल बाद मुख्यमंत्री बदल दिया और फिर 1 फरवरी, 2014 को हरीश रावत को प्रदेश की कमान सौंप दी गई। साल 2017 आते-आते उत्तराखंड में दो बार राष्ट्रपति शासन लग चुका था और फिर साल 2017 में मोदी लहर के सामने कांग्रेस खुद को बचा पाने में असफल रही। ऐसे में इस बार देखना है कि क्या हरीश रावत और कांग्रेस का आला नेतृत्व साल 2002 से चली आ रही सत्ता परिवर्तन की परंपरा को कायम रख पाते हैं या नहीं ?
उत्तराखंड में तेजी से बदलते समीकरण के बीच में मतदाताओं को लुभाने के लिए आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक समय-समय पर चुनावी वादें और रैलियां करते रहते हैं। पार्टी ने 2017 में हुए पंजाब विधानसभा चुनाव से सीख लेते हुए मुख्यमंत्री का चेहरा भी घोषित कर दिया है। इसके साथ ही पार्टी कांग्रेस की साख को कमजोर करने में जुटी हुई है। कांग्रेस और भाजपा के इर्द-गिर्द सिमटी सियासत के बीच में आम आदमी पार्टी ने सभी 70 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान किया है। पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल ने तो सत्ता में आने पर 300 यूनिट तक बिजली मुफ्त और 5 हजार रुपए बेरोजगारी भत्ता देने समेत कई लोक-लुभावने वादे किए हैं। जिसकी वजह से दूसरी पार्टियों की रातों की नींद गायब हो गई है।

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