बस यूँ ही- ‘’बुलंद दरवाजा’’ : ‘’भगवान के बन्दे पुलिस वाले’’!

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कुसुम रावत

मित्र पुलिस के ‘’प्रतिबद्ध मुखिया’’ उत्तराखंड पुलिस महानिदेशक अनिल रतूड़ी की ‘’विदाई परेड’’ – 30 नवंबर

‘’पुलिस वाले भगवान के बन्दे होते हैं’’- ये शब्द सुनके आप भी मेरी ही तरह झटका खाओगे, जैसे मैंने 4 साल पहले खाया था. पर ये एक मासूम बच्चे ‘विभु रावत’ के बोल हैं जब वो लगभग 5 साल का था. उसकी नजरों में पुलिस का दर्जा बहुत ऊँचा है. क्यों? उसकी कहानी सुनें कि कैसे और किस वजह से एक बच्चे की जुबान से पुलिस के लिए ये शब्द निकले थे और वो भी पुलिस महानिदेशक ‘अनिल रतूड़ी’ बनने की चाहत में. ये विभु के शब्द हो सकते हैं पर चाहत हर आम नागरिक की है पुलिस उसकी ”सुरक्षा और न्याय” का जिम्मा बिना किसी भेदभाव और छोटी-बड़ी लाइनें देखे-बुझे ”अभेद दृष्टि ” से निभाये. इसी चाहत में मैं आपको एक नितांत निजी प्रसंग आज ”पुलिस महानिदेशक अनिल रतूड़ी” की विदाई परेड के शुभ मौके पर सुना रही हूँ. गौर से सुनिए

ये केदारनाथ आपदा का वक्त था- 2013. विभु ढाई साल का था. वो अपनी उम्र से कुछ ज्यादा ही समझदार, नेक और दयालु है. टी.वी. पर पुलिस और फौज को लोगों को मदद करते देखने को वो घंटों टी.वी. के सामने जमा रहता. देखादेखी कभी अपने जहाज उडाता तो कभी आर्मी का टेट्रा ट्रक या पुलिस जीप लेकर ‘’रेस्क्यू ओपरेशन’’ की नक़ल करता. पर आखिर में उसे ‘’पुलिस’’ ही पसंद आई. ढेरों सवालों के बीच उसने एक दिन पूछा ये क्या है और ये कौन हैं? पुलिस के बारे में सब कुछ जानकर उसको ‘’दिल्ली पुलिस’’ नाम बड़ा पसंद आया. देश के एक से बड़े एक पुलिस ऑफिसर का नाम और उनकी कहानी सुन लेने पर भी उसने किसी नाम को पसंद न किया. आखिर में खीजकर मैंने नाम लिया ‘’अनिल रतूड़ी’’. बस विभु को नाम जंच गया- ‘’अनिल रतूड़ी और दिल्ली पुलिस’’. उस दिन से वो खाकी पुलिस पैंट पहन पुलिस बनने की नक़ल करता रहा बरसों. कहीं भी कुछ गलत होता तो विभु रोता और बोलता- अरे जाओ कोई अनिल रतूड़ी पुलिस अंकल को बुलाओ. कोई बड़े जब किसी बच्चे को मारते तो वो चिल्लाता पुलिस आ गई. मजाल है कोई पेड़ की टहनी भी उसके सामने काट दे तो वो रोता मेरी ‘प्यारी जोजो’ के जंगल काट दिए बुलाओ अनिल रतूड़ी पुलिस अंकल को. जोजो याने मेरी जंगलात अधिकारी दोस्त ‘’ज्योत्सना सितलिंग’’ जो विभु की प्रिय दोस्त है छोटेपन से उसके साथ खेलते हुए.

पुलिस के साथ विभु का लगाव और बढ़ा जब 3 साल की उम्र में उसको और उसके पिता राजीव को एक रात घंटाघर में एक बाइक वाले लडके ने बुरी तरह चोट पहुंचाई. भीड़ ने उस लड़के को मारा पर कोई दो छोटी उम्र के ‘’पुलिस वाले’’ आये उन्होंने रोते चोटिल विभु को ‘’फ्रूटी’’ दी. गोद में उठाकर उसको दून अस्पताल ले गए. और बाद में पटटी कराकर घर भी छोड़ा. इस घटना ने विभु के मन में ‘’दिल्ली पुलिस’’ और ‘’अनिल अंकल’’ की ईज्जत और भी बढ़ा दी.

फिर जुलाई 2015 की बात है जब डॉ अब्दुल कलाम साहिब का निधन हुआ था. मेरी एक प्रोफेसर मित्र ने 5 साल के विभु से पूछा तुम बड़े होकर क्या बनना चाहते हो? वो तपाक से बोला- ‘’बराक ओबामा’’. सब हंसने लगे. विभु को बड़ा बुरा लगा. मेरी दोस्त ने सम्भलकर फिर पूछा अगंर बराक ओबामा न बन सके तो क्या बनोगे? वो और संजीदगी से बोला ‘’अनिल रतूड़ी पुलिस अंकल’’. अब सब फिर हंसने लगे कि एक छोर पर ओबामा और दुसरे छोर पर अनिल पुलिस अंकल’’. ये कौन सा साम्य है? मेरी दोस्त ने फिर कहा क्या तुमको ‘’अब्दुल कलाम अंकल’’ पसंद नहीं. विभु फिर उतने ही दम से बोला- दरअसल कलाम साहिब मुझे बहुत पसंद हैं. उनका अभी-अभी इंतकाल हुआ तो मैं रामेश्वरम गया. उन्होंने बोला विभु तुम बहुत अच्छे लड़के हो. मुझे चॉकलेट दी. कविता सुनाई पर मुझे उनके ‘’खिचड़ी जैसे बाल पसंद नहीं.’’ वो खूब स्टोरी बना लेता था. सब चुप हो गए. पर मैं जानती हूँ वो किसी न किसी वजह से बोल रहा होगा. मैंने पूछा तो तुम ‘’अनिल रतूड़ी पुलिस अंकल’’ ही क्यूँ बनाना चाहते हो? तुम तो उनको मिले भी नहीं हो. वो बोला- ‘’दरअसल पुलिस वाले भगवान के बन्दे होते हैं.’’ अब सब सन्न हो गए!

‘’पुलिस वाले भगवान के बन्दे होते हैं-‘’ यधपि मैं बहुत उदार हूँ पर मेरे लिए भी जीवन का ये एक नया ‘’फलसफा’’ था. पुलिस को गालियां देना और कोसना तो खूब सुना था पर ‘’भगवान् का बंदा कहना’’ पहली बार सुना, वो भी एक 5 साल के बच्चे के मुंह से. मैंने अगले दिन अपने एक गुरु जी से पूछा, जो पहले पुलिस महानिदेशक मध्य प्रदेश के पद से रिटायर होकर 25 साल पहले साधु बन चुके थे. देश के इतिहास में उनका बड़ा भारी योगदान है. उन जैसा विवेकी और ज्ञानी होना सुखद व अदभुत बात है. वो विभु को बड़ा पसंद करते हैं और उससे मिलने अक्सर आते भी हैं. मैंने उनको पूछा स्वामी जी विभु ने क्यों बोला कि ‘’पुलिस वाले भगवान के बन्दे होते हैं?’’ तो स्वामी जी ने गंभीर होकर बोला- ‘’बेटा दुनिया में लॉ एंड आर्डर बनाये रखना भगवान का ही काम है. उसने ये ‘’नेक काम’’ पुलिस को सौंपा है. तो ‘’पुलिस वाले भगवान के ही तो बन्दे’’ हुए ना! अब पुलिस अपना ये ‘नेक काम’ ‘’ईमानदारी’’ से करे या नहीं तो ये बन्दे-बन्दे पर निर्भर करता है. विभु ने बड़ी गहरी बात कही है. तुम वक्त आने पर समझोगी’’. उसकी बातों को गौर से सुना करो मैं चुप हो गई. कहानी यहीं न पूरी हुई.

5 सितम्बर 2016 को ‘’टीचर डे’’ पर बच्चों ने स्कूल में टीचर के लिए कार्ड बनाया. विभु ने अनोखा कार्ड बनाया अपनी टीचर के लिए नहीं अपने ‘’अनिल रतूड़ी पुलिस अंकल’’ के लिए. टीचर ने माँगा उसने नहीं दिया. शाम को हमको दिखाया और बोला- तुम इसको पुलिस अनिल अंकल को दे देना. मैंने पूछा क्यों? तो बेचारा बोला- मुझे पुलिस बनना है ना, तो मेरे ‘’टीचर तो अनिल अंकल’’ ही हुए. हम हँसे तो उसे बुरा लगा. अब जब हमने कापी के कागज पर बना कार्ड देखा तो हममें से किसी के समझ नहीं आया. मेरे पूछने पर कि ये क्या है? तो बड़े शान्ति से बोला सुनो-
अनिल अंकल को बोलना ये विभु की अपनी खुद की क्रिएशन है. उसने बिना पेंसिल-रबड़ के सीधे पेंसिल कलर से ये कार्ड बनाया. विभु की सोच और ड्राइंग बहुत अच्छी है. कार्ड में बहुत सफाई से दो हिस्से किये थे. निचले हिस्से में नीले रंग में पानी के तालाब में दो बड़ी ‘’शार्क मछली’’ और कई ‘’छोटी-छोटी मछलियाँ’’ तैर रही थीं.बीच में एक कमल का फूल सीधे खड़ा था. कार्ड के उपरी हिस्से में लाईन खींचकर एक भूरे रंग का बड़ा नक्काशीदार दरवाजा बना था. किनारे लिखा था- डियर अनिल अंकल हैप्पी टीचर्स डे! उस कार्ड को बार-बार देख हम कुछ न समझे. बार-बार पूछने पर क्या बोला? आप सुनें-

‘’ये तालाब हम मासूम बच्चों की दुनिया है. इसमें ये दो बड़ी शार्क मछली ‘’गुंडे’’ हैं और छोटी मछलियाँ हम मासूम बच्ये हैं. कमल का फूल पुलिस अंकल हैं. जब ये शार्क मछली हमको खाने आयेंगी याने गुंडे हमको मारेंगे और हम पर मुसीबत आएगी तो हमको इनसे बचाने की जिम्मेदारी अनिल रतूड़ी पुलिस अंकल की तो है. जब पुलिस ढंग से अपना काम करेगी तो वो पानी में सीधे खड़ी रहेगी कमल की तरह, नहीं तो पानी में गिर जायेगी. हम सब चुप होकर 6 साल के विभु की बात सुन रहे थे. मैंने फिर पूछा फिर ये ‘’दरवाजा’’ क्यों बनाया. तो बोला जब पुलिस अपना काम ठीक से करके हम बच्चों की हिफाजत करेगी तो उसको मेरे ‘’गुरुजी’’ का ‘’बुलंद दरवाजा’’ मिलेगा. हम सबों का सर चकराने लगा- पुलिस से कितनी उम्मीद इस बच्चे को है? वो बोलते वक्त छोटे से ही उर्दू, अंग्रेजी, हिंदी के बड़े-बड़े शब्दों का खूब प्रयोग करता है. फिर बोला तुम इस कार्ड को ‘’अनिल अंकल’’ को समझा देना. पूरे 7-8 महीने बाद एक दिन मैंने ये कार्ड अनिल रतूड़ी अंकल की पत्नी राधा रतूड़ी को दिया जो मेरी बहुत प्रिय दोस्त हैं कि ये भाई जी को दे देना. उस कार्ड को देखकर वो भी हैरान थीं. फिर ये तय हुआ की मैं खुद ही दूं. साल भर बाद मैंने भाई जी को ये कार्ड दिया तो सादे से सुन्दर कार्ड और उसके बड़े ‘गहरे मायने’ जानकर तो वो हैरत में थे. मेरे पास उस कार्ड की तस्वीर नहीं पर ‘’रतूड़ी परिवार’’ के पास कार्ड रखा होगा. काश मैं दिखा पाती आपको.

पर मेरी समझ में अब भी विभु की ‘’बराक ओबामा या अनिल रतूड़ी’’ बनने और ‘’पुलिस वाले भगवान् के बन्दे’’ की बात समझ नहीं आई थी कि क्यों इसके मन में ये बातें आई? अचानक 2017 में जब ‘’बराक ओबामा’’ राष्ट्रपति पद से रिटायर हुए तो शायद वह ‘’न्यूयॉर्क टाइम्स’’ का सम्पादकीय लेख था, जिसको अमर उजाला ने हिंदी में अनुवाद कर छापा था. लेखक मुझे याद नहीं पर लेख की इन अंतिम लाइनों में मेरा सालों पुराना जवाब कुछ यों छुपा था-

‘’बराक एक प्रतिबद्ध राष्ट्रपति हैं, बराक एक प्रतिबद्ध नागरिक हैं, बराक एक प्रतिबद्ध बेटे हैं, बराक एक प्रतिबद्ध पति हैं, बराक एक प्रतिबद्ध पिता हैं, बराक एक प्रतिबद्ध दोस्त हैं, या यूँ कहो बराक ‘’प्रतिबधता’’ का दूसरा नाम ही हैं’’. ये लाइनें पढ़ते ही मुझे पूरे दो साल बाद समझ आया कि बराक ओबामा की ये जो ‘’बेमिसाल प्रतिबधता’’ उनकी शारीरिक भाषा, पहनावे, चपलता, बोलने-चालने, चाल-ढाल-चरित्र-चिंतन और काम के अलग ही अंदाज से झलकती है उसने ही इस बच्चे को ओबामा के प्रति आकर्षित किया होगा. तब मैं समझी कि इसने ‘ बराक ओबामा’ न बन पाने पर क्यों ‘अनिल रतूड़ी पुलिस अंकल’ बनना चाहा? वो अनिल अंकल से मिला तो नहीं था पर पुलिस के प्रति उसके मन में अपने खुद के अनुभवों से भगवान् के बन्दे जैसी छवि और मेरे से जाने-अनजाने में अपनी राधा आंटी-अनिल अंकल के बारे में खूब सुनकर उसने मन में अनिल अंकल की एक ‘’प्रतिबद्ध बन्दे’’- रोल मॉडल की छवि बराक ओबामा न बनने के एवज में कब बना ली मुझे पता ही नहीं चला. अपने खुद के अनुभवों से पुलिस के प्रति जो छवि उसके जेहन में बनी थी, उसने वो एक ‘’प्रतिबद्ध इंसान’’ की छवि अनिल अंकल में देख ली- उनको टी.वी. और अखबार पर कई बार देखकर-सुनकर.
आज अनिल रतूड़ी की विदाई बेला में मुझे लगता है विभु ने जाने अनजाने में अनिल रतूड़ी का एकदम सही मूल्यांकन एक आदर्श ‘’रोल-माडल’’ के तौर पर किया- ‘’प्रतिबद्ध बराक ओबामा’’ के समकक्ष अपना एक ‘’प्रतिबद्ध लोकल-आदर्श’’ रखकर. एक ऐसे वकत में जहाँ आदर्श रोल-माडलों का नितांत अकाल पडा है. आज रतूड़ी परिवार से मैं अपने 20 साल पुराने परिचय के आधार पर कह सकती हूँ कि-

जो ‘’बुलंद दरवाजा’’ विभु ने अपने कार्ड में पुलिस को मासूम बच्चों की हिफाजत करने के बदले में दिया. आज विभु के हीरो अनिल रतूड़ी पुलिस अंकल विभु के गुरूजी के उसी ‘’बुलंद दरवाजे’’ से ‘’कार्तिक पूर्णिमा’’ के नायब मौके पर अपने 33 सालों के बेमिसाल, शानदार, निर्विवाद और बेदाग पुलिस कैरियर के बाद ‘’काजल की काली कोठरी’’ से बड़ी शान और शालीनता से अपने ही ‘’मुल्क उत्तराखंड’’ की उस धरती से ही पूरे सम्मान और गरिमा के साथ रिटायर हो रहे हैं, जिस उत्तराखंड के लिए उनका दिलो दिमाग शिद्दत से धडकता है. क्योंकि मेरा मानना है कि ‘’अपने ही मुल्क में अपने ही लोगों के बीच’’ बिना किसी विवाद और दाग के पुलिस जैसे बदनाम महकमे से जीवन में पूरी ‘प्रतिबद्धताओं’ के साथ हर पारी में अव्वल रहकर रिटायर होना बहुत मुश्किल काम है. मैं बड़ी नम्रता से आज 20 साल बाद बोल सकती हूँ कि अनजाने में सालों पहले विभु के मुंह से निकले शब्द और उसकी बराक ओबामा या अनिल रतूड़ी अंकल बनने की ‘’तिलिस्मी चाहत’’ को मैंने बड़े गौर से 20 सालों में रतूड़ी परिवार के परिवार का हिस्सा रहकर महसूस किया है कि-

‘अनिल रतूड़ी वाकई में देश के एक प्रतिबद्ध नागरिक, एक प्रतिबद्ध पुलिस ऑफिसर, उत्तराखंड को दिलोदिमाग से प्यार करने वाले एक प्रतिबद्ध उत्तराखंडी, एक प्रतिबद्ध बेटे, एक प्रतिबद्ध पति, एक प्रतिबद्ध पिता, एक प्रतिबद्ध भाई, एक प्रतिबद्ध मित्र, एक प्रतिबद्ध दामाद, एक प्रतिबद्ध आम नागरिक और विभु जैसे मासूम बच्चों के लिए एक प्रतिबद्ध अनिल रतूड़ी पुलिस अंकल हैं- वो ‘’मित्र पुलिस अंकल’’ जिसमें विभु, और उस जैसे ‘मासूम बच्चे और आम नागरिक’ भगवान की ‘’नीर-छीर न्याय व्यवस्था’’ की झलक देखने को बेताब होकर समाज में सही आदर्शों के अभाव में अपना ‘’रोल- मॉडल’’ फिल्म के सुनहरे परदे में खोज रहे हैं. कुछ इस उम्मीद में कि उनको पुलिस के भगवान के बन्दों की बदौलत अपनी इस खूबसूरत दुनिया में चैन से सांस लेने, खेलने-कूदने, बड़ा होने और अपने हिस्से की ‘’गुनगुनी धूप तापने का मौका मिलेगा’’.
आज अनिल रतूड़ी ने जाने-अनजाने में अपनी तारीफे काबिल ‘प्रतिबधता’ के चलते आने वाले पुलिस अधिकारीयों के लिए अपने ‘चाल-चरित्र-चिंतन’ से एक बड़ी ‘नजीर और लकीर’ खींच दी है, जिस पर चलना अपने आप में एक चुनौती है.

वैसे भी पुलिस की नौकरी ईमानदारी से आम लोगों के हित में कर पाना दुधारी तलवार की धार पर चलाना सरीखा है. अजीब इतफाक है आज विभु के अनिल रतूड़ी पुलिस अंकल ‘’कार्तिक पूर्णिमा’’ के शुभ मौके पर अपनी शानदार- जानदार-कामदार-बेदाग-निर्विवाद पारी खेलकर आम लोगों के मन में गहरा सम्मान पाकर विभु के गुरूजी के ‘’बुलंद दरवाजे’’ से कार्तिक पूर्णिमा’’ के शुभ दिन पर रिटायर हो रहे हैं.

ऐसे शुभ मौके पर उत्तराखंड पुलिस महानिदेशक अनिल रतूड़ी जी को एक शानदार, ईमानदार, शालीन, बेदाग, निर्विवाद और जनहित की सुन्दर ‘’प्रतिबद्ध पारी’’ खेलने हेतु विभु और उस जैसे तमाम छोटे-बड़े लोगों का सलाम, जो आज भी ‘’पुलिस की खाकी वर्दी’’ में अपना भगवान देख ‘’न्याय की उम्मीद’’ में कोने-कोने में एकटक लगाये बैठे हैं. मेरी उम्मीद है उत्तरखंड पुलिस जरूर भगवान के बन्दे वाली मित्र पुलिस की छवि बनाने की जरूर कोशिश करेगी! आज की शानदार रैतिक परेड मे अनिल रतृडी जी का दमदार भाषण सुनना एक सुखद सयोग था.
उत्तरखंड पुलिस महानिदेशक अनिल रतूड़ी जी को शानदार रिटायरमेंट पर विभु का ‘’बुलंद दरवाजा’’ मुबारक

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