आज है काल भैरव जयंती , जानें पूजा विधी

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काल भैरव जयंती का हिंदुओं में बहुत महत्व है। यह दिन भगवान काल भैरव की पूजा के लिए समर्पित है। लोग इस विशेष दिन पर उपवास रखते हैं और भगवान काल भैरव की पूजा करते हैं। इस दिन कालाष्टमी भी मनाई जाती है। मार्गशीर्ष महीने की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि 16 नवंबर 2022 यानी आज के दिन काल भैरव जयंती मनाई जा रही है।

हिंदू शास्त्रों के अनुसार, भगवान काल भैरव भगवान शिव की भयावह अभिव्यक्ति हैं। इस दिन को भगवान काल भैरव की जयंती के रूप में मनाया जाता है इसलिए भगवान काल भैरव या भगवान शिव के भक्तों के लिए इस दिन का बहुत महत्व है। यह दिन अधिक शुभ माना जाता है जब इसे मंगलवार और रविवार के दिन मनाया जाता है क्योंकि ये दिन भगवान काल भैरव को समर्पित होते है. इसे महा काल भैरव अष्टमी या काल भैरव अष्टमी के नाम से भी जाना जाता है।

उदयातिथि के अनुसार, कालभैरव जयंती इस बार 16 नवंबर, बुधवार को यानी आज मनाई जा रही है। इस बार काल भैरव जयंती मार्गशीर्ष के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाई जाएगी। कालभैरव जयंती की शुरुआत 16 नवंबर को सुबह 05 बजकर 49 मिनट से हो रही है। इसका समापन 17 नवंबर को सुबह 07 बजकर 57 मिनट पर होगा। हिंदू शास्त्रों के अनुसार, बहुत समय पहले की बात है। भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश यानि त्रिदेवों के बीच इस बात को लेकर विवाद हो गया है कि उनमें से कौन सर्वश्रेष्ठ है। विवाद को सुलझाने के लिये समस्त देवी-देवताओं की सभा बुलाई गई। सभा ने काफी मंथन करने के पश्चात जो निष्कर्ष दिया उससे भगवान शिव और विष्णु तो सहमत हो गए लेकिन ब्रह्मा जी संतुष्ट नहीं हुए। यहां तक कि भगवान शिव को अपमानित करने का भी प्रयास किया, जिससे भगवान शिव अत्यंत क्रोधित हो गये।

कालभैरव जो कि काले कुत्ते पर सवार होकर हाथों में दंड लिये अवतरित हुए थे, ने ब्रह्मा जी पर प्रहार कर उनके एक सिर को अलग कर दिया। ब्रह्मा जी के पास अब केवल चार शीश ही बचे उन्होंने क्षमा मांगकर काल भैरव के कोप से स्वयं को बचाया। ब्रह्मा जी के माफी मांगने पर भगवान शिव पुन: अपने रूप में आ गये लेकिन काल भैरव पर ब्रह्म हत्या का दोष चढ़ चुका था जिससे मुक्ति के लिये वे कई वर्षों तक यत्र तत्र भटकते हुए वाराणसी में पंहुचे जहां उन्हें इस पाप से मुक्ति मिली। कुछ कथाओं में श्रेष्ठता की लड़ाई केवल ब्रह्मा जी व भगवान विष्णु के बीच भी बताई जाती है। भगवान काल भैरव को महाकालेश्वर, डंडाधिपति भी कहा जाता है. वाराणसी में दंड से मुक्ति मिलने के कारण इन्हें दंडपानी भी कहा जाता है।

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